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लोकगायिका शारदा सिन्हा को मरणोपरांत पद्म विभूषण, बेटे अंशुमान ने ग्रहण किया सम्मान


राष्ट्रपति भवन में आयोजित अलंकरण समारोह में दी गई श्रद्धांजलि, लोकसंस्कृति को अंतरराष्ट्रीय मंच तक पहुंचाने के लिए सम्मान

नई दिल्ली: पद्म पुरस्कार 2025 के तहत मंगलवार को राष्ट्रपति भवन के दरबार हॉल में आयोजित भव्य समारोह में देश की महान लोकगायिका शारदा सिन्हा को मरणोपरांत पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया।
यह भावुक क्षण तब और विशेष बन गया जब यह प्रतिष्ठित सम्मान शारदा सिन्हा के बेटे अंशुमान सिन्हा ने ग्रहण किया।

राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू द्वारा प्रदान किए गए इस पुरस्कार को शारदा सिन्हा को भारतीय लोकसंगीत, खासकर बिहार की सांस्कृतिक परंपराओं को वैश्विक पहचान दिलाने के लिए दिया गया।

शारदा सिन्हा: बिहार की स्वरकन्या और लोकगीतों की अमिट पहचान

बिहार की सांस्कृतिक विरासत की प्रतिनिधि मानी जाने वाली शारदा सिन्हा ने छठ महापर्व, विवाह गीत और पारंपरिक रीति-रिवाजों से जुड़े लोकगीतों को अपने सुरों में पिरोकर घर-घर तक पहुंचाया। उनके प्रसिद्ध गीत—

  • “परदेसिया”,
  • “कांच ही बांस के बहंगिया”,
  • “पावन छठी माई” — आज भी जनमानस की धड़कनों में बसे हुए हैं।

उनका संगीत ना सिर्फ मनोरंजन का माध्यम रहा, बल्कि संस्कृति और परंपरा का जीवंत दस्तावेज भी बन गया।

समारोह का भावुक क्षण और गरिमामय उपस्थिति

इस वर्ष आयोजित पद्म पुरस्कार समारोह में कुल 17 विभूतियों को पद्म विभूषण, पद्म भूषण और पद्म श्री से नवाजा गया।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृहमंत्री अमित शाह, संस्कृति मंत्री जी. किशन रेड्डी सहित कई केंद्रीय मंत्री और गणमान्य अतिथि इस ऐतिहासिक पल के साक्षी बने।

कार्यक्रम की विशेषता रही भारतीय पारंपरिक संगीत की लाइव प्रस्तुति, जिसने पूरे माहौल को सांस्कृतिक गरिमा से भर दिया।

राष्ट्रपति मुर्मू का संदेश: पद्म पुरस्कार सेवा और संस्कृति का सम्मान

राष्ट्रपति मुर्मू ने समारोह को संबोधित करते हुए कहा,”पद्म सम्मान न केवल प्रतिभाओं को पहचानते हैं, बल्कि यह राष्ट्र निर्माण में उनके योगदान का आदर भी है।”

लोकसंगीत को नई पहचान, नई प्रेरणा

शारदा सिन्हा को मिला यह पद्म विभूषण सिर्फ एक सम्मान नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक पुनर्जागरण का प्रतीक है।
यह लोकसंगीत की विरासत को आने वाली पीढ़ियों तक पहुंचाने का संकल्प भी है।

उनके जीवन और कृतित्व को यह पुरस्कार यादगार श्रद्धांजलि के रूप में देखा जा रहा है—एक ऐसी विभूति को, जिनकी आवाज अब भी हर पर्व, हर उत्सव में गूंजती है।

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